मुबारक, इस मौसम का सबसे खूबसूरत नजारा अभी-अभी देखने को मिला है। दिल्ली के सबसे महान कवि की कब्र के ठीक बगल में खड़ी एक आम की गाड़ी – फोटो देखें।
यह एक सर्वमान्य सत्य है कि मिर्जा गालिब को समझे बिना कोई भी दिल्ली को पूरी तरह से नहीं समझ सकता। और आमों के प्रति उनके जुनून को समझे बिना कोई भी मिर्जा गालिब को पूरी तरह से नहीं समझ सकता। सौभाग्य से, गालिब अकादमी की मुफ्त पहुंच वाली लाइब्रेरी मध्य दिल्ली में कवि की मजार के बगल में है, और धातु की अलमारियों में कई उर्दू पुस्तकों में से एक है—शरह दीवान-ए-ग़ालिब डॉ. काजी सईदुद्दीन द्वारा लिखित – ग़ालिब के जीवन और कार्यों से जुड़ी किस्सा-कहानियों का एक विशाल संग्रह है। उनमें से कुछ कहानियाँ हमारे फलों के राजा के प्रति कवि की अत्यधिक भक्ति को स्पष्ट रूप से बयां करती हैं।
(वैधानिक अनुशंसा: निम्नलिखित अंशों को रसदार दशहरी आम के साथ पढ़ना सबसे अच्छा है, जिसका रस आपके हाथों और कलाइयों से टपकता हुआ आपके प्रिय समाचार पत्र के मुद्रित संस्करण पर गिर रहा हो!)
पहली किस्सा-कहानी
मिर्ज़ा को आमों से बहुत प्यार था। उन्होंने आमों की तारीफ़ में एक पूरी मसनवी भी लिखी थी। आम के मौसम में दूर-दूर से उनकी ग़ज़लों के मुरीद उन्हें टोकरियाँ भरकर भेजते थे। वे भी अपने दोस्तों से आम तोहफ़े में देने के लिए बेहिचक आग्रह करते थे।
एक रोज़, मिर्ज़ा दोस्तों के साथ गपशप कर रहे थे। बातचीत अचानक ही आप-जानते-हैं-क्या पर आ गई। हर आदमी ने फल के बारे में अपनी गहरी समझ पेश करना शुरू कर दिया। जब मिर्ज़ा की बारी आई, तो उन्होंने टिप्पणी की कि एक बेहतरीन आम में सिर्फ़ दो गुण होने चाहिए- वह मीठा होना चाहिए और बहुत सादा होना चाहिए। दोस्त हंसने लगे।
दूसरी किस्सा-कहानी
एक रोज़, हकीम रईजुद्दीन मिर्ज़ा से मिलने उनके बल्लीमारान स्थित घर गए। हकीम साहब उन दुर्लभ लोगों में से थे, जिन्हें आमों से कोई मतलब नहीं होता। मिर्ज़ा से बातचीत करते हुए एक गधे वाला अपने गधे के साथ गली से बाहर निकल गया। गली का एक कोना आम के छिलकों से अटा पड़ा था (क्या ग़ालिब ने फेंके थे? साहित्य इस सवाल पर चुप है।) गधे ने आम के छिलकों को सूँघा और आगे बढ़ गया। हकीम साहब ने विजयी भाव से मिर्ज़ा की ओर इशारा करते हुए कहा, “देखिए, आम ऐसी चीज़ है जिसे गधा भी नहीं खाता।” मिर्ज़ा ने सिर हिलाया और गंभीर भाव से कहा– “ठीक है, गधा आम नहीं खाता।” (क्या हकीम साहब की बात समझ में आई? साहित्य चुप है।)
तीसरी किस्सा-कहानी
एक रोज़, मिर्ज़ा बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के साथ लाल क़िला के शाही बाग़ में टहल रहे थे। पेड़ रंग-बिरंगे आमों से लदे हुए थे। मिर्ज़ा पेड़ों की ओर देखते हुए चुप हो गए। आख़िरकार महामहिम ने पूछा, “मिर्ज़ा, तुम क्या देख रहे हो?” मिर्ज़ा ने सोच-सोचकर अपने हाथ जोड़े–“ऐ मेरे पीर-ए-मुर्शिद, किसी बुज़ुर्ग ने फ़ारसी में कहा:
बार सारे हर दाना बनाविष्टा अयान
काएन फ़लान इब्न ए फ़लान इब्न ए फ़लान
(हर बीज पर यह स्पष्ट लिखा होता है
यह इस के बेटे का है और वह उस के बेटे का है)”
मिर्ज़ा ने आश्चर्य से कहा, “क्या यहाँ किसी आम पर मेरा और मेरे बाप-दादा का नाम लिखा है?”
उसी दिन शाही बाग से बेहतरीन आम मिर्जा के घर पहुंचाए गए।